(एक)
बचपन में हममें से कोई बेरोजगार नहीं था
सिवा मजूरी करने वाले मिसिर महराज के बेटे के
और सिवा सल्लू कबड़िया के
जो अपने घर का खर्च चलाने
और कई बार तो चूल्हा तक जलाने के लिए
पंचर बनाने या लोहा बीनने का
कोई भी काम कर लिया करते थे।
(दो)
जब बंद थे दरवाजे चारों तरफ
सील कर दी जाती थीं
कुछ अधखुली खिड़कियाँ मुझे देखकर।
भीतरी स्नेह रखने वाले तमाम लोगों के लिए
मेरा सामने आना
कम नहीं होता था उनकी किसी अग्निपरीक्षा से।
बहुत चाव से पढ़े जाते रोजगार समाचार
बाँच-बाँचकर जोर-जोर से
हम सभी हॉस्टल वाले दोस्तों के बीच
रेलवे और सब इंस्पेक्टर के आवेदन पत्रों का
झमाझम होता था फोटोस्टेट।
कि जब कई लड़कियों से
अपने प्रेम का इजहार
महज इसीलिए नहीं किया गया
कि जवाब क्या होगा इस सवाल का
कि तुम करते क्या हो?
कोई माकूल जवाब नहीं था
हममें से किसी के पास
जो बहुत बड़े-बड़े सवालों के जवाब दिया करते थे
पलक झपकते ही।
अपना-सा मुँह लेकर रह जाना हमें स्वीकार न था
और बगलें झाँकना तो बिलकुल नहीं
बेरोजगारी के उन कठिन दिनों में भी
चौड़े और चौकस होकर बैठा करते थे
गाँव-देहात से इलाहाबाद आए हम सारे दोस्त
कि हमारे हृदय का आयतन
बहुत ही ज्यादा हुआ करता था भई!
किसी रिश्तेदार के घर जाने से पहले
हम हजार बार सोचते थे
और नहीं ही जाते थे अंततः।
(तीन)
हमारे माँ-बाप को मशविरा दिया करते थे
हमारे (अ)शुभचिंतक
मानो वही माता-पिता हों हमारे
मानो उन्हीं की आँखें डूबी थीं कातरता के पोखर में तब
जब हमने फर्स्ट क्लास में पास किया था हाईस्कूल
और लाख चाहकर भी खरे न उतर सके थे पिता अपने वादे पर
कि फर्स्ट डिवीजन आने पर बँधवाऊँगा एक नई साइकिल तुम्हारे लिए।
हमारे ये (अ)शुभचिंतक ही पढ़ा-लिखा रहे हों हमें मानो,
और मानो हमारे बेरोजगार रहने से
बोझ उनका बढ़ेगा कुछ।
तंगहाली के ऐसे जोखिम भरे दौर में भी हम
क्यूबा और उसकी अकड़ की
तारीफ किया करते थे जमकर रात-रात भर,
तस्वीरें चिपकाई जाती थीं कास्त्रो की
हॉस्टल की सफेद दीवारों पर
भात की लेई से।
(चार)
हमारे सिर पर
एक बहुत ऊँची पुरानी छत हुआ करती थी
दोस्तों के अपनापे की
टपकते जिससे सीनियर बेरोजगारों के तमाम आशीष।
याद है आज भी जब इसरत गाँव गया था
अपनी बहन की शादी में
तो हम सबने चन्दा लगाकर
एक उपहार खरीदा था अपनी सामूहिक बहन के लिए।
कि दुकान पर चाय का पैसा
कौन देगा आज
इस पर कोई जनसभा नहीं हुई हम दोस्तों में
कभी भी।
शायद यह सब होने वाला जानकर
चायवाले चाचा खुद ही कह देते,
“जाव भइया, काल्हि दइ दिहेव!
का हम कहूँ भागा जाइत है?”
यह सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पनपी
गैर-सरकारी दोस्तियों का दौर था
जिसका बाल-बाँका कर न सकी कोई बेरोजगारी,
अँतड़ियों का बहुत वाजिब स्यापा भी
इसी बेराजगारी के पक्ष में लड़ रहा था
हम दोस्तों के खिलाफ लामबंद हो,
और परीक्षाओं के लिए हम
बगैर टिकट रेल सफर कर ही लिया करते
निश्चिन्त हो, पूरे सिस्टम को ताक पर रखकर।
(पाँच)
बेरोजगारी के वे दिन
असल में हमारे
और हमारे गाँववासियों के
सपनों की उड़ान के दिन होते थे
कि कोई कल्पित कलक्टर बनेगा
तो कोई सच में गवर्नर!
आकाश कम पड़ जाता
उन्हीं सपनों के लिए
जो आज बड़ी मुश्किल से
कमरे की छत भी छू पाते शायद।
(छह)
पढ़ोगे-लिखोगे, बनोगे नवाब जैसी
कितनी ही कहावतें
उपदेश की शक्ल में इतनी बार सुनीं थीं बचपन से
कि आ गया था आजिज मन
और नफरत सबसे ज्यादा
होती गई नवाब और अफसर बनने से ही
बनना ही न चाहा हमने ये सब कभी।
वक्त के साथ ठोस होता गया
इस नफरत का तरल आधार
और साबित हुआ वाजिब भी।
हमें तभी से इन उपदेशों की दरारों में से
गुलामीपसंद मानसिकता की
एक झीनी पट्टी झाँकती नजर आती थी।
(सात)
हममें से कुछ लोग पा गए नौकरी,
धान-गोहूँ बेचकर पढ़ाया गया जिन्हें
कइयों की तो खेत-बारी भी रेहन पर थी।
कुछ को तो बना दिया धनपशु नौकरियों ने.
अपनी हर योग्यता, हर चीज को
पैसे में ही बदल डालना चाहते हैं कुछ तो,
फिर भी इनमें से नहीं कोई शामिल
देश-दुनिया के अमीरों की सूची में।
अफसोस के साथ जान गए हम सभी
कि नौकरी जैसा निकम्मा काम कुछ होता भी नहीं
और मान गए
कि बड़ी नौकरियाँ तो
बड़े ही निकम्मे इनसानों को पैदा करती हैं।
नौकरीपेशा लोग जाने क्यों सिकुड़ कर रहते अब
केंचुए की तरह,
यकीन नहीं होता
कि कैसे चौड़े और चौकस होकर
बैठते थे हम बेरोजगारी के दिनों में!
बेरोजगारी शायद ईंधन हुआ करती थी
हमारे सपनों का।